कोई घर नहीं होता औरत का
कोई घर नहीं होता औरत का
जहाँ जन्म लेती है वो पिता का
जहाँ भेज दी जाती है वो पति का
जहाँ जाना चाहती है वो सपनो का
कोई घर नहीं होता औरत का
रानी तो कहते है उसको
पर ठौर तो होता नहीं कही भी
पूरी उम्र कड़ी रहती है
मन के द्वारे
सहती है बटवारे
झेलती है अंगारे
टूटती है बिखरती है
जुड़े रहना सीखती है
पर जुड़ नहीं पाती है
हर घर से अपने टुकड़े समेट कर
मन और देह की जर्जरता को जोड़े रखती है
क्यूंकि कोई घर नहीं होता औरत का
Post a Comment